द्वितीय खंड
:
4.
देश-निकाला
खूनी कानून में तीन प्रकार की सजा देने की व्यवस्था थी : जुर्माना, कैद और
देश-निकाला। ये तीनों सजाएँ एकसाथ देने का भी कोर्ट को अधिकार था। यह अधिकार
छोटे मजिस्ट्रेटों को भी दिया गया था। पहले-पहल देश-निकाले का अर्थ था
ट्रांसवाल की सीमा से बाहर नेटाल या फ्री स्टेट की सीमा में अथवा डेलागोआ बे
(पुर्तगाली पूर्व अफ्रीका) की सीमा में अपराधी को छोड़ आना। उदाहरण के लिए,
नेटाल की ओर से आनेवाले हिंदुस्तानियों को वॉक्सरस्ट स्टेशन की सीमा से
बाहर ले जाकर छोड़ दिया जाता था। इस तरह के देश-निकाले में असुविधा के सिवा
लोगों को अन्य कोई कष्ट नहीं होता था। यह तो निरा मजाक था। इससे
हिंदुस्तानियों का जोश उलटा अधिक बढ़ता था।
इसलिए हिंदुस्तानियों को परेशान करने की नई युक्तियाँ ट्रांसवाल सरकार को
खोजनी पड़ीं। जेलों में तो जगह रह ही नहीं गई थी। इसलिए सरकार ने सोचा कि यदि
हिंदुस्तानियों को हिंदुस्तान तक का देश-निकाला दिया जाए, तो वे जरूर घबरा
कर हमारी शरण में आ जाएँगे। सरकार की इस धारणा में कुछ सत्य अवश्य था। उसने
हिंदुस्तानियों के एक बड़े समूह को हिंदुस्तान भेज दिया। उन लोगों को मार्ग
में बड़े बड़े कष्ट झेलने पड़े। खाने-पीने की बड़ी से बड़ी असुविधा उठानी
पड़ी। सरकार ने जहाज पर जो भी व्यवस्था खाने की की उसीसे उन्हें काम चलाना
पड़ा। सबको उसने डेक पर ही भेजा था। इसके सिवा, उनमें से कुछ लोगों की दक्षिण
अफ्रीका में अपनी जमीनें थीं, दूसरी जायदाद भी थी। उनका अपना धंधा था,
बाल-बच्चे थे; कुछ लोगों के सिर कर्ज भी था। शक्ति होते हुए भी इस तरह सब-कुछ
खोने के लिए-दिवालिया बनने के लिए-बहुत लोग तैयार नहीं हो सकते थे। इस सबके
बावजूद अनेक हिंदुस्तानी पूरी तरह दृढ़ और अडिग रहे। बहुत से ढीले भी पड़ गए।
जो लोग ढीले पड़ गए, वे जान-बूझकर गिरफ्तार होने से बचने लगे। इनमें से अधिकतर
हिंदुस्तानियों ने जलाए हुए परवानों के स्थान पर दूसरे परवाने लेने की हद तक
तो कमजोरी नहीं दिखाई। लेकिन कुछ दूसरों ने डरके मारे फिर से परवाने ले लिए।
फिर भी जो लोग दृढ़ बने रहे, उनकी संख्या ध्यान खींचने जितनी तो थी ही। उनकी
बहादुरी का कोई पार न था...
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भारतीय विश्ववविद्यालय को राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का एक जीवित अवयव समझा जाना
चाहिए। विश्वविद्यालयों का कर्तव्य है कि वे प्रत्येक क्षेत्र में सत्य की खोज
करें तथा विस्तृत विचारधारा के व्यक्तियों का निर्माण करें। वे ऐसे छात्रों को
तैयार करें जिनमें स्वतंत्रता और सत्य के लिए प्रेम हो तथा जो उचित आदर्शों के
साथ मातृभूमि की सेवा में समर्पित हों। राष्ट्र के उत्थान में विश्वविद्यालयों
का योगदान मुख्य होगा। उनका कर्तव्य है कि राष्ट्र के युवकों को विभिन्न
व्यवसायों के लिए तैयार करें, जहाँ वो अपनी ऊर्जा और बुद्धिमत्ता के प्रयोग से
सदैव उन्नति करने वाले हों। लाभदायक एवं सम्माननीय व्यवसायों जैसे आर्मी,
नेवी, व्यापार, वाणिज्य, उद्योग की ओर युवकों का ध्यान आकर्षित किया जाए। नए
भारत के निर्माण के लिए विज्ञान एवं तकनीकी ज्ञान युवाओं को उपलब्ध कराया जाए।
भारत की आर्थिक और औद्योगिक उन्नति के लिए नेतृत्व एवं कार्मिकों की उपलब्धता
विश्वविद्यालयों में ही होगी। विश्वविद्यालय का कर्तव्य है कि वह प्राकृतिक
संसाधनों के प्रयोग के अध्ययन पर जोर दे ताकि राष्ट्र में आर्थिक समृद्धि आए,
सभी की मूलभूत आवश्यकताएँ जैसे रोटी, कपड़ा और मकान पूरी हों। स्वास्थ्य,
स्वच्छता और पोषण के मार्ग में आने वाली बाधाओं के निवारण हेतु अध्ययन किया
जाए।
साहित्य
मदन मोहन मालवीय
राष्ट्रीयता और देशभक्ति
स्वामी विवेकानंद
प्राण
संस्कृति
प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल
वेदांत और युवा
देशांतर
आल्फोंस दोदे
अनुवादक: डॉ. श्रीनिकेत कुमार मिश्र
अंतिम कक्षा
आलोचना
रूपेश कुमार
मृत्यु किनारे कलकल छलछल
कहानी
असित गोपाल
साईं इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाय
अल्पना मिश्र
मेरे हमदम, मेरे दोस्त
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संरक्षक
प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल
(कुलपति)
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